क्या सऊद अरब दारूल ईस्लाम है या दारूल कुफ्र ?

क्या सऊद अरब दारूल ईस्लाम है या दारूल कुफ्र ?

हर मुसलमान के लिये यह ज़रूरी है की वोह यह जाने की उसका दीन दुनिया के किसी हिस्से मे जारी और नाफिस हो रहा है की नही. ऐसा इसलिये की हर मुसलमान पर यह वाजिब है की वोह उस इस्लामी मुल्क के हुक्मरान को बैत दे जहाँ अल्लाह के दीन के मुताबिक हुक्मरानी हो रही हो. दूसरे शब्दो मे वोह देश खिलाफत राज्य हो जहाँ का हुक्मरान खलीफा हो और जिसकी इताअत करने का हुक्म इस्लाम हमे देता है. इसलिये यह मज़मून न तो मफरूज़ा बुनियादो पर और ना ही इल्मी ग़रज़ की वजह से बहस करेगा. दूसरे अल्फाज़ो मे एक मुसलमान को यह जानना बहुत ज़रूरी है की क्या सउदी अरब के किंग फहद मुसलमानों के खलीफा हैं और यह की क्या सउदी अरब दारुल इस्लाम है. अगर यह बात साबित हो जाती है की सउदी अरब दारुल इस्लाम है तो खिलाफत के दोबारा क़याम की फर्ज़ियत खत्म हो जाती है (और इसका मतलब यह है की इस्लामी तहरीकें दरहक़ीकत अपना वक्त बरबाद कर रही हैं उस काम के लिये जिसे पहले से ही हांसिल कर लिया गया है).
कई मुस्लिम सऊदी अरब को ईस्लामी रियासत समझते है। ऐसा ईसालिये होता है कि उनके पास दारूल ईस्लाम और दारूल कुफ्र को समझने की कसौटी नही होती। ऐसा इसलिये भी होता है कि ऐसे मुमालिक के हालात की हक़ीक़त से वाकफियत भी नही होती क्योकि ऐसी रियासते अपने आपको दूसरी शक्ल में पेश करती है। आखिरकार सउदी अरब हर साल कुरआने करीम को कई लाख कॉपिया और इस्लामी किताबे बटवाता है और पूरी दुनिया में मस्जिदे बनवाने के लिये पैसा देता है। नतीजतन लोग उसे इस्लामी रियासत समझते है। इसलिये मुसलमानो को इसकी हक़ीक़त को समझना बहुत ज़रूरी है।
ईस्लामी रियासत होने की कसौटी:-एक रियासत को ईस्लामी रियासत होने के लिये यह ज़रूरी है कि उसका संविधान (क़वानीन), ढांचा और खारजी ताल्लुक़ात और अपनी समस्याओ का समाधान ईस्लामी के अकीदे की बुनियादो पर हो। अगर कोई रियासत ईस्लामी क़वानीन के जरीये हुकूमत नही करे या ज़िन्दगी के किसी भी मसले पर गैर-ईस्लामी क़वानीन से अहकाम अखज़ करे, तो वोइ ईस्लामी रियासत नही है यानी दारूल कुफ्र है। इस बुनियाद को सामने रख कर हम सऊदी को जांचेगे ।
सउदी अरब और ईन्सान के जरिये वजअ करदा क़वानीन (man-made laws)
सउदी अरब हुकूमत कुछ ईस्लामी और कुछ ईन्सान के जरिये वज़अ करदा (यानी इंसानी क़वानीन या man-made) मिले-जुले क़वानीन, के ज़रिये हुक्मरानी करती है। हालांकि उनके बारे में ईस्लामी तसव्वुर बनाये रखने के लिये वोह इन्हे क़वानीन के नाम से नही पुकारता। सउदी हुकूमत ईस्लामी क़वानीन और इंसानी क़वानीन क़वानीन के दर्मियान फर्क करने के लिये खास तरह की ईस्तिलाहात (नाम) इस्तेमाल करती है। अरबी की किताब (The Constitutional Laws of the Arab Countries) के ज़ेली उनवान (The Constitution of the Kingdom of Saudi Arabia) के मुसन्निक कहते है, ‘‘अल्फाज जैसे ‘क़ानून’ और ‘तश्रीह’ को सिर्फ सऊदी में ईस्लामी शरीअत से लिये गये क़वानीन के हम मआनी लिया जाता है . . . . .  और जहाँ तक इंसान के द्वारा बनाऐ गये क़वानीन (man-made laws) का ताल्लुक है जैसे निज़ाम (अनसिमा) या ‘तालीमात’ या ‘अवामिर’. . . . . .”
अरबी की एक और किता जिसका टाइटल अज-वज़ीज़ फी तारीख अल-कवानी (The Compact in the History of Cannons)  जिसके मुसन्निफ डॉ. मेहमूद अल-मगरिबी है, पेज-443, इस बात का ज़िक्र करते हुए की गुज़रे हुए ज़माने मे क़ानून ईस्लामी और सिधा-साधा सादा होता था, वोह सऊदी की तारीफ करते हुए कहते है, ‘‘यह सूरते हाल सऊदी रियासत और नए प्राकृतिक संसाधन के उरूज के बाद बदल गइ। इस नई सूरते-हाल के लिये सुधार और तब्दिली की ज़रूरत थी। इन तब्दीलियो की वजह से नऐ क़वानीन की ज़रूरत थी। इसके नतीजे में मुन्दरजा शोबो में क़वानीन को लिखा गया: क़ानून जिस की बुनियाद अदालत के निज़ाम, तिजारत, निज़ामे उकूबात, मजदूरी से मुताल्लिक क़वानीन, टेक्स और दूसरे कई क़वानीन . . . . . . .” ।

तिजारत के क़वानीन से मुताल्लिक वोह कहते है, ‘‘तिजारत के क़वानीन बर्री और बहरी, जिन्हे ‘निज़ामें तिजारत’ के नाम से भी जाना जाता है, सऊदी कानूने तिजारत की एक अहम खासियत है. इन क़वानीन को 1931 में जारी किया गया था और यह जदीद तिजारती क़वानीन की तरह ही है, चाहे वह अरब हो या यूरोपियन”. इस्लामी निज़ामें उकवात (Islamic penal code) के मुताल्लिक वोह कहते है कि उनका निफाज़ किया जाता है (बैशक) ‘‘कुछ तब्दिलियों के साथ जो कि आवाम के मफाद के लिये ज़रूरी होती है, वोह मज़ीद कहते है, ‘‘आवाम का मफाद यह भी तकाज़ा करता था कि कुछ टेक्स रेवेन्यू क़वानीन बनाये जाये या रियासत से सम्बन्धित . . . . . ’’ मुसन्निफ दरहक़ीक़त हमे बता रहे है कि सऊदी तिजारत में गैर-ईस्लामी क़वानीन नाफिज किये जा रहे है, ‘‘जदीद तिजारती क़ानून की तरह’’. वोह हमे यह भी बताते है कि अल-सऊद ने अल्लाह के दीन को तब्दील करके उसके कुछ क़वानीन को तब्दील किया ‘‘लोगो के मफाद’’ के लिये। दरहक़ीक़त मे ऐसे कई क़वानीन है, जिसका मुसन्निफ ने ज़िक्र नही किया जैसे -
>    सन् 1386 हिजरी में जारी बादशाह के हुक्म #M/5 के मुताबिक बैकिंग का निज़ाम
>    सऊदी अरब शहरियत का निज़ाम जो कि मंत्रियो की शूरा के ज़रिये करादाद #4  के तहत 25 जनवरी, 1974 को तय किया और जिसकी तस्दीक बादशाह के ज़रिये उसकी हाई कॉउन्सिल की मीटिंग की तक़रीर मे की गई (#8/5/8604) 22 फरवरी, 1974 के दिन ताकि, इसे लागू किया जा सके।
>    बादशाह के हुक्म के मुताबिक प्रिन्ट मटिरियल और तबाअत के निज़ाम के क़वानीन #M/17 in 13/4/1402 हिजरी
>    मुर्दा जमीन पर दोबारा काश्तकारी करने से मुताल्लिक ईस्लामी क़वानीन जारी थे, जिसके मुताबिक अगर कोई आदमी बंजर ज़मीन पर काम करे तो वोह उसकी मिल्कियत बन जाती है। (सऊदी में) ऐसा उस वक्त रहा जब तक बादशाह हा हुक्म जारी हुआ जिसके मुताबिक इस ईस्लामी क़ानून को 1987 में तब्दील कर दिया गया।
>    गेर-सऊदी औरत से निकाह से मुताल्लिक निज़ाम।
>    टैक्स से मुताल्लिक आम क़वानीन #M/9 जिसकी तस्दीक बादशाह ने तारीख 4/6/1995 हिजरी मे की.
शरई और सिविल अदालतें
सऊदी और उसके जैसी कई मुस्लिम देशो में शरिया अदालतो के अलावा ऐसी अदालते भी है जहॉ इंसानी बज़ेअकरदा क़वानीन (man-made laws) के मुताबिक फैसला किया जाता है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि वोह इन अदालतो का ‘सिविल अदालत’ नही कहते ताकि मुसलमानों और उनको ओलमा को इन बात से धक्का नही लगे, जो ईस रियासत के सबसे अहम रुक्न है। सऊदी अरब के कानूनी फोरम काउन्सिल (शूरा) और कमीटियो के ज़रिये बनाये गये है । जैसे दीवाने मज़ालिम (नाईंसाफी के लिये मजलिस) वगैराह। यह फोरम दूसरे मुल्क की तरह शहरी अदालते (सिविल कोर्ट) है।
सऊदी के आलिम दूसरे देशो की ईन अदालतो को कुफ्र की अदालतो के नाम से पुकारते है, लेकिन वोह इ्तनी हिम्मत नही कर पाते कि उनकी कॉउन्सिल के खिलाफ ऐसा कह सके। यह कानूनी फोरम ऐसे मुआमलात को मुखातिब करते है जो यहाँ ईस्लामी शरई अदालत का हिस्सा नही, जैसे रिबा (ब्याज), जालसाज़ी, रिश्वत वगैराह. इन मजलिसो मे कुछ शेख और वुकला होते है, जो कि सोरबोन (Sorbonne) जैसे कॉलिजो से फारिग़ है और वोह कुछ दफाओं और अवामिर के मुताबिक ऐसे फैसले जारी रखते है जो गैर-ईस्लामी होते है। मिसाल के तौर पर मीलिट्री अदालतों को एक खास दीवान के तहत रखा गया है, जिसको ‘मीलिट्री अदालतो का दीवान’ कहते है। इसमें सउदी इंसान के बनाए हुऐ क़वानीन का इस्तेमाल करते है जैसे ‘सउदी अरब फौज का निज़ाम’ जिसे 11/11/1366 हिजरी में जारी किया गया। यह निज़ाम शरई और गैर-शरई क़वानीन का मलगूबा है, जिसका ताल्लुक सिर्फ फौजियो से है। शरिअत के क़ानून की मिसाल ‘हिराबा’ के क़ानून की है, जिसके मुताबिक उसे कत्ल करने का हुक्म है, जो रियासत के खिलाफ बग़ावत करे। दरहक़ीक़त यह क़ानून इस लिये लागू किया गया, ताकि इस्लामी हामिल दावात अफराद को रोका जा सके, खास तौर से ईस्लामी फौज को की वो अल-सउद की हुकूमत को उखाड़ कर ईस्लामी रियासत का कयाम न करें। जहॉ तक चोरी के मुताल्लिक क़ानून की ताल्लुक है, जिसके मुताल्लिक उनका दावा है कि यह ईस्लामी है, उसे लागू नही किया जाता। यह बात मशहूर है कि ईस्लाम मे चोर के हाथ काटने की सजा है, चाहे चोर कोई शहरी हो, फौजी हो या खलीफा खुद हो।

“सउदी अरब का फौजी निज़ाम” (the System of the Saudi Arab Army) के बाब 8 दफा 12 में है, ‘‘अगर कोइ फौजी या अफसर किसी दूसरे फौजी या अफसर की कोई चीज़ या पैसा चुरा ले और चीज़ का इस्तेमाल कि जा सकती हो, तो चोरी करने वाले को उस चीज़ की कीमत अदा करनी होगी, अगर उसका इस्तेमाल कर लिया गया है और उसको एक महीने से लेकर तीन महीनो तक की कैद दी सकती है, इसके अलावा अगर कोई अफसर चोरी करता है और बाद में तौबा करता है तो उसको अनुच्छेद (दफा) 20 और 22,  बाब 3, के मुताबिक सजा दी जायेगी। यह निज़ाम कुछ जुर्मो को शरई अदालतो के तहत रखा जाता है और दूसरो का ‘मजलिस मुकदमा’ (Council of trials) के तहत फैसला किया जाता है।
हम उन आलिमो और उनसे जो बरतानिया के जरिये बनाइ हुइ और अमरीका के जरिये पाली हुई इस हुकूमत  का समर्थन करने वाले से पूछते है क्या ईस्लामी क़वानीन कुछ पर तो लागू किये जाते है और कुछ पर नही? इस बारे में ईस्लाम का क्या हुक्म है कि सज़ाओ के मामले में अल्लाह के नाज़िल कर दा हुक्म को छोड़कर किसी और फिक्र से क़ानूनसाज़ी की जाये?

सउदी हुकूमत रिबा (बयाज) देती भी है और लेती भी है। 
अगर कोई हरम शरीफ के आस-पास घूमकर देखे तो वह वहॉ ब्रिटिश-सउदी बैंक, अमरीकन-सउदी बैंक, अरब-नेशनल बैंक और काहिरा-साउदी बैंक मौजूद पायेगा। यह सारी बैंके जो ब्याज से अपना कारोबार चलाती है, इन्हे सउदी क़ानून के अनुच्छे-1, सेक्षन-बी जिसको बादशाह के हुक्म नं. M/5 बमुताबिक 1386 हिजरी में जारी किया, के मुताबिक वहॉ कारोबार करने की खुली छूट है। वहॉ यह बात बहुत जानी पहचानी है कि रिबा (ब्याज) और बैंको से सम्बन्धित कोई भी केस/झगड़ा अपने आप ज़री इदारों (monetary establishment) को मुन्तकिल कर दिया जाता है, जिसका फैसला एक खास कमीटी करती है। इस तरह के मुकदमे शरइ अदालतो में नही जाते। इस क़ानून के लागू होने से पहले अगर कोई शख्स किसी बैंक या संस्था से पैसा उधार लेता और उसे लौटाने में देर कर देता तो ईदारा/बैंक उस पर ब्याज लगा देती थी। फिर वोह शरीया अदालत की तरफ रूजू करता, जो इस ब्याज को की रकम को मुस्तरद (nullify) कर देती थी। इस व्यवस्था की वजह से झगड़ा पैदा होता था। एक तरफ इन्हे अपना झूठ बाकी रखने के लिये शरई अदालते चाहिये, दूसरी तरफ उन्हे काफिराना व्यवस्था पर आधारित पर बैंके भी चाहिये। इस झगड़े को खत्म करने के लिये शरई अदालतो को “स्पेशलाइज़ेशन” क़ानून’ के जरिये, (जो कि the System of Saudi Arab Army की दफा  20 और 21 के बाब 3 में दर्ज है), इस तरह के मुकदमो में दखलअन्दाज़ी करने से रोक दिया गया।
सउदी और उसके GCC (गल्फ कोपरोषन काउन्सिल) के दर्मियान ब्याज पर आधारित सम्बन्ध: Unified Economic Agreement का अनुच्छेद-22 के मुताबिक: सदस्य देश आपस में ज़री (monetary) और माली मामलात में एक दूसरे की सहायता करेंगे और ज़रई इदारो (monetary establishments) और मर्कजी बैंक के बीच सहायता बढाएगें . . . .” । यह बात बिल्कुल साफ हो गई यह देश रिबा (ब्याज) पर आधारित है।
सऊदी और AMF (अरब मोनिटरी फण्ड)
अरब मोनिटरी फण्ड जो कि आबूधाबी में स्थित है, एक ब्याज पर आधारित बहुत बड़ी संस्था था, जिसकी स्थापना मोरक्को में 4/7/76 में एक सन्धि के मुताबिक हुई। इसमें सउदी सबसे बड़ा शेयर होल्डर है और इसमें दूसरे अरब देशो की तरह इसे अपने हिस्से का 32 प्रतिशत ब्याज मिलता है।
सउदी और IMF (इन्टरनेशनल मोनिटरी फण्ड)
यहॉ यह बात काबिले ज़िक्र है कि सउदी छटा सबसे बड़ा शेयर होल्डर है, उसकी कुल मे से 3.5 प्रतिशत शेयरो में हिस्सेदारी है, जिसके कारण उसको कार्यकारिणी बोर्ड का स्थाई सदस्य की हैसियत हासिल है। इसलिये हम पूछते है कि कोई रियासत जो ब्याज को हुकूमत की पॉलिसी के रूप में अपनाती हो, ईस्लामी हुकूमत कैसे हो सकती है ? शायद वह ईस्लामी हुकूमत इसलिये हो सकती है क्योकि वोह कुरआन की नकले छापवाकर बटवाते है और इसलिये की सउदी अरब के ‘‘आलिम’’ ऐसा कहते है!!

सउदी और खारजा (External) ताल्लुकात: अंतर्राष्ट्रीय अदालत
इस बात से सब आगाह है कि सउदी संयुक्त राष्ट्र संघ (UN) का सदस्य है। यू.एन. के संविधान के अनुच्छेद 92 के मुताबिक इन्टरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (अंतर्राष्टीय अदालत या (ICJ) यू.एन. की अहम अदालती शाखा है। ICJ जिस व्यवस्था के मुताबिक काम करती है, जो कि यू.एन. के सविधान का हिस्सा है, जिसका सम्मान करना और मंज़ूरी देना हर सदस्य देश के लिये अनिवार्य है। अनुच्छेद 94 के मुताबिक: “यू.एन. के हर सदस्य राज्य को ICJ के सामने हर मामले मे अपने आपको सुपुर्द करना होगा, हर उस मामले में जिसका वोह हिस्सा है”. क्या यह अंतर्राष्ट्रीय क़ानून अल्लाह की किताब और उसके रसूल की सुन्नत से लिया गया है। सउदी अपने आपको किसके सामने सुपुर्द कर रहा है ? यू. एन. के जिसे क्या ईस्लाम के लिये बनाया गया या ईस्लाम के खिलाफ? सउदी यू.एन. का सिर्फ सदस्य नही है बल्कि वोह यू.एन. का समर्थन करने में सबसे पहले आगे आने वाले देशो में से है। कुछ का तो यहॉ तक मानना है कि वोह उसकी नींव रखने वाले सदस्यों मे से है। सन् 1945 में सेन फ्रेन्सिसको (अमरीका) की एक कॉफ्रेस को खिताब करते हुए प्रिंस फैज़ल बिन अब्दुल अज़ीज़, भूतपूर्व वज़ीरे खारजा ने कहा, ‘‘आओ हम उन उसूलो की इत्तिबा करे जो हमने अभी कागज पर लिखे है . . . . . .और हम इस संविधान को नई और बेहतर दुनिया बनाने की बुनियाद बनाये”.

सउदी और यूनेस्को (UNESCO)
यूनेस्को की स्थापना 1946 में की गई। सउदी ने इस संस्था में बहुत दिलचस्पी दिखाई, जिसमें 46 मिलियन अमरीकी डालर बिना ब्याज के और इसके प्रोजेक्ट के समर्थन के लिये 50,000 अमरीकी डालर दान दिये। यह ईदारा पश्चिमी विचाराधाराओ को फैलाने और ईस्लाम को तोड़ने-मरोड़ने के लिये बनाया गया है। मिसाल के तौर पर इस संस्था के द्वारा जारी किया गया ऐनसाक्लोपीडिया (Encyclopedia on the History of the Human Race and its Scientific Development) के जिल्द 3 बाब 10 मे है: (1) ईस्लाम एक मनघडन्त धर्म है, जो कि यहूदियत, ईसाईयत और अरब बहुदेववाद से मिलाकर बनाया गया है।
(2) कुरआन एक ऐसी किताब है, जिसमें दूसरो के रवादारी (tolerance) नही है।
(3) पैगम्बर की हदीसें बाद के कुछ लोगो ने गढ़ी है, पैगम्बर के बहुत समय बाद और उनकी तरफ मंसूब कर दी गई है।
(4) मुस्लिम क़ानूनसांजो ने अपने क़ानून को रोमन, फारस और चर्च के क़वानीन और ओल्ड टेस्टामेन्ट को बुनियाद बनाकर तय्यार किया।’’
तलानूर अत्तार में सउदी हुकूमत की अपनी किताबे Saudi and the UN में तारीफ करते हुए लिखा, कि इसने यूनेस्को को 17,04,000 अमरीकी डालर दान में दिये। क्या सउदी हुकूमत इतनी अंजान और अनपड है कि उसने यह नही सुना कि यूनेस्को उस दीन के बारे में क्या लिखता जिसे वोह फैला रहे है या फिर वोह यह दान उसी काम के लिये दे रही है, जिसे यूनेस्को कर रहा है? 

सउदी और अरब लीग
सउदी इस कौमपरस्त संस्था (यानी अरब लीग) का ना सिर्फ एक सदस्य है बल्कि इसका बानी देशों मे से एक देश है। अरब लीग के सविधान का अनुच्छेद-बी कहता है, ‘‘लीग के हर सदस्य देश के लिये लाज़िम है कि वोह एक-दूसरे के निज़ामें हुक्मरानी (ruling system) का सम्मान करे और इसे इन देशो के (राजनैतिक) अधिकारो मे से समझे और अपने उपर यह अनिवार्य कर ले कि उनके निज़ाम बदलने के लिये कोई भी कदम नही उठायें।’’ सउदी को ईस्लामी हुकूमत मानते हुए क्या ईस्लाम इस बात की ईजाज़त देता है कि वोह काफिराना निज़ाम पर आधारित कोई मुस्लिम देश को मान्यता दे, उसकी मदद करे और उसे तब्दील नही करने का वादा करे ? तो क्या ईराक की बाथिस्ट हुकूमत (सद्दाम हुसैन की कम्यूनिस्ट हुकूमत) और बशरुल असद की अलवी हुकूमत का सम्मान करना चाहिये। कौमियत का तसव्वुर जिसे सउदी हुकूमत फैला रही है, इस्लाम हराम करार देता है। 

बहाने
कोई यह दावा कर सकता है कि सउदी हुकूमत यह सब अपनी मर्जी से नही कर रही है बल्कि दबाव के तहत कर रही है। ऐसा खास किसी घटना या किसी बयान के ताल्लुक़ से हो कहा जा सकता है लेकिन ऐसा उस वक्त नही कहा जा सकता जब उपर ज़िक्र किये गये सिद्धान्तो को सउदी ने अपनी पॉलिसी के तौर पर अपनाया और ऐसा वोह तब से कर रहा है जब से ब्रिटेन ने उसकी स्थापना की थी। फहद ने भी यह ऐलान किया था, ‘‘हमारे हर शहरी को अपने देश के बारे में अपना सर ऊचा रखना चाहिए। दूसरे देशो से हमारे सम्बन्ध आपसी फायदो पर इस तरह निर्भर है, के कोई भी देश सउदी अरब राजशाही पर अपनी पकड़ नही बना सकता।’’ (जुमेरात, 8 सफर, 1905 हिजरी) यह बात बिल्कुल साफ हो गई कि सउदी मे ईस्लाम नाफिज़ नही किया जाता। इससे यह नतीजा निकलता है कि ईस्लामी निज़ामें हयात को दोबारा जिन्दा करने के लिये खिलाफत के कयाम के लिये काम करना मुसलमानो पर फर्ज़ है।
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इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.